'एकाग्रता ही सभी प्रकार के ज्ञान की की नींव है; इसके सिवा कुछ भी करना सम्भव नहीं है|'
जिन लोगो ने अपने मन को नियंत्रित करने का संकल्प कर लिया है, उन्हें सर्वप्रथम मन की प्रकति को स्पस्ट रूप से समझ लेना होगा, जिससे कि वे लोहा लेना चाहते है | मन बन्दर के समान चंचल और मतवाले हाथी के समान शक्तिशाली है | इसे नियंत्रित करना अर्जुन के कथानुसार वायु को पकड़ने के समान है | संयमित करने के लिए वैसी ही निपुणता की आवश्यकता है, जैसे कि बंदरो को पकड़ने एवं हाथियों को प्रशिक्षित करने में लगती है |
जब अर्जुन ने शिकायत की कि मन को नियंत्रण ने लाना अत्यंत कठिन है तब भगवान श्रीकृष्ण ने यह कहकर उसे हसी में नहीं उड़ा दिया, "हे अर्जुन, बड़े-बड़े योद्धाओं को पछाड़ देने वाले तुम्हारे जैसे पराक्रमी के लिए अपने स्वयं के मन को वश में करना कौन सा कठिन कार्य है ? तुम्हे तो यथेच्छा इसका उपयोग करने में समर्थ होना चहिये |" परन्तु इसके स्थान पर समस्या की गंभीरता को समझते हुए वे सहानुभूतिपूर्वक बोले, "अर्जुन ! तुम जो कहते हो, वह सत्य है कि मन अत्यन्त चंचल है एंव इसे वश में करना भी बहुत कठिन है | " भगवान श्रीकृष्ण के ऐसा कहने का कारण यह है कि वे मन के स्वभाव को जानते थे | इस पृथ्वी के प्रत्येक प्राणी तथा वस्तु का अपना एक विशिष्ट स्वभाव है, यथा- हवा का गुण है चलना, आग का जलना और जल का धर्म है बहना; ठीक इसी प्रकार मन का भी स्वभाव है - हर पल चारो तरफ दौड़ना, पागल के समान उछल - कूद मचाना, सपने देखना , चिंता करना, हवाई किले बनाना, अपने कर्तव्य - कर्म को छोड़कर अन्य बातों का विचार एंव चिंता करना आदि आदि | एक तो मन स्वभाव से ही चंचल है और चंचलता से भरा परिवेश भी उसे उत्तेजित करता रहता है, अतः ऐसी परिस्थिति में मनुष्य उसके तालो पर नाचने के सिवाय कर भी क्या सकता है ? इसलिए जो लोग अपने मन को नियंत्रित करना चाहते है, उन्हें अपने आप को उच्छृंखल वातावरण से अलग रखना चाहिए | इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि हमें शहर ही छोड़ देना चाहिए, बल्कि केवल इतना ही करना होगा कि हम अपने मन को उपरोक्त प्रकार के परिवेशों में घुलमिल न जाने दे | यह कैसे हो सकता है? यहाँ पाँच ज्ञानेन्द्रियों की भूमिका दृष्टि में आती है | आँख, कान, नाक, जिव्हा तथा त्वचा- ये पाँच मन के यंत्र है | ज्योंही आँख की ज्योति किसी आकर्षक वस्तु पर पड़ती है, त्योंही मन उस पर कूद पड़ता हैं | ये इन्द्रियाँ ही मन को विभिन्न दिशाओं में खींचती रहती है | अतः बुद्धि की सहायता से इन्द्रियों को नियंत्रण में रखना आवश्यक है | तात्पर्य यह है कि उसे न देखें जिसे देखना उचित नहीं, उसे न सुनें जिसे सुनना उचित नहीं, उसे न खायें जिसे खाना उचित नहीं, वह न करे जिसे करना उचित नहीं | इसी को संस्कृत में 'दम' कहते है | मन इन्द्रियों की सहायता के बिना भी जहाँ ख़ुशी हो जाना है | ऐसी परिस्थिति में बुद्धि की सहायता से मन को पुनः वापस ले आना चाहिये | मन को संयमित रखने की इस प्रत्यक्ष विधि को 'शम' कहते हैं |
मन तथा इसके निग्रह के विषय में इतनी जानकारी प्राप्त करने के बाद भी कोई पूछ सकता है कि आखिरकार इसे नियंत्रित करने की अवश्यकता क्या है? इसका सही उत्तर जानना हमारे लिए आवश्यक है | इसका उत्तर यह है : यदि किसी व्यक्ति का मन उसके स्वयं के नियंत्रण में है, तो इसके द्वारा महान उपलब्धियाँ संम्भव है; जबकि वह उसके नियंत्रण में नहीं है, तो यहाँ तक कि साधारण से साधारण कार्य भी उसे उसे कठिन तथा असम्भव लगते है | वस्तुत: 'मन' विराट् शक्तियों का आगर है, तथापि कुछ लोग बीच बीच में या फिर जीवन भर ही दुर्बल मानसिकता के शिकार दिख पड़ते हैं | इसका कारण यह है कि उनकी मानसिक ऊर्जा की अविवेकपूर्वक बर्बादी हुई है | सभी इस बात को नहीं जानते कि सूर्य की किरणों में अग्नि उत्पन्न करने की क्षमता निहित है | क्यों नहीं जानते ? इसलिए अब तक उन्होने सूर्य की किरणों से आग उत्पन्न होते तथा वस्तुओ जलते नहीं देखा होगा | किन्तु जब उन्ही किरणों को एक उत्तल लेंस से गुजारकर कागज टुकड़े पर डाला जाता है, तो वे उसे जला डालती हैं | किरणों को यह शक्ति कहाँ से मिली ? यह इनके एक बिन्दु पर केन्द्रित करके 'एकाग्र' बनाने का परिणाम था | इसके पहले ये किरणें विभिन्न दिशाओ में बिखरी हुई थीं | इसी कारण गर्मी उत्पन्न कर पाने के बावजूद वे आग पैदा करने में असमर्थ रहीं, परन्तु एक बिंदु पर केन्द्रित किये जाने पर उसी से आग धधक उठी | यही एक स्मरणीय रहस्य है |
हमारे मन में अदभुत शक्ति निहित है, पर चूकि यह शक्ति सभी प्रकार के आवश्यक तथा अनावश्यक कार्यो में नष्ट होती जा रही है, अतः हम केवल अति सामान्य कार्य करने में ही सक्षम हो पाते है | यदि महान उपलब्धियाँ करनी हों, तो मन की विच्छिन्न शक्तियों को एक सूत्र में होगा यह केवल तभी सम्भव है, जब मन हमारे स्वय के नियंत्रण में हो | परन्तु बिना कुछ सुने पागल के समान दौड़ने वाले इस मन भला कैसे अपना कहा जा सकता है? जो मन इन्द्रियों के आमंत्रण पर विषयों में डूब जाता है, निश्चित रूप हमारा अपना नहीं है | अब हम इस मन को जो कि हमारा अपना नहीं है, किस प्रकार अपने इच्छित कार्यो में लगायें ?
हमारे प्राचीन ऋषियों ने पहली उपलब्धि की थी- निरन्तर प्रयास के द्वारा मन को नियंत्रण में लाकर 'मानसिक सन्तुलन' स्थापित करना | और जब ऐसे सयंमित मन को एकाग्र किया जाता था, तो उनमे योग के महान रहस्यों को उद्घाटित करने की क्षमता आ जाती थी | इससे उन्हें दिव्य-ज्ञान की प्राप्ति हुई |
स्वामी विवेकानन्द बताते है कि एकाग्र मन वस्तुत: एक सर्चलाइट हमें दूर तथा अँधेरे कोनो में पड़ी वस्तुओ को भी देखने में समर्थ बनाता है |
यह सत्य है कि मन को एकाग्र करना है, किन्तु उसका विषयवस्तु तथा लक्ष्य क्या हो ? इसका एक ऐसा सुनिश्चित उतार देना सम्भव नहीं, जो सभी व्यक्तियों के लिए अनुकूल हो, क्योकि 'यदि कहा जाय कि आत्मज्योति पर मन को एकाग्र किया जाय, तो यह उचित नहीं होगा, क्योंकि सभी योगी बनाने के इच्छुक नहीं है | और न ही यह कहा जा सकता है कि मन को ईश्वर पर एकाग्र किया जाय, क्योंकि हर व्यक्ति भक्त नहीं बनना चाहता | फिर यदि कहें कि मन को पाठों पर एकाग्र करना चाहिए, तो कैसा रहे ? लेकिन सभी लोग तो स्कूल जानेवाले विद्यार्थी नहीं हैं | अतः सर्वाधिक उचित तो यही होगा कि प्रत्येक व्यक्ति स्वयं ही मन:संयोग के लिए अपना खास विषय चुन ले |
परन्तु चूँकि यह लेख विशेष रूप से छात्रों से सम्बन्ध रखता है, अतः यहाँ पर इसी बात पर चर्चा करेंगे कि विद्यार्थी किस प्रकार अध्ययन में अपने मन को एकाग्र करें |
(स्वामी विवेकानन्द)
एकाग्रता में ही सफलता का सारा रहस्य निहित है - इस बात को समझ लेने वाले सचमुच ही बुद्धिमान है | एकाग्रता को केवल योगियों के लिए ही आवश्यक समझना एक बड़ी भूल है | एकाग्रता प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है, भले ही वह किसी भी कार्य में क्यों न लगा हो | देखने में आता है कि लौहकारो, नाइयो, स्वर्णकरो तथा जुलाहों में सहज रूप से ही एकाग्रता विकसित हो जाती है हथौड़ा चलाते समय लोहार यदि जरा -सा भी चूक जाय, तो सम्भव है की वह अपने ही हाथो को कुचल डाले; नाई का उस्तरा यदि गलती से फिसल जाय, तो त्वचा में घाव हो जाने की आशंका है; यदि बढ़ई की पकड़ रुखानी से ढीली पड़ी, तो हो सकता है कि वह अपने आंगुठे से ही हाथ धो बैठे | इसी प्रकार सुनार का कार्य भी नि:संदेह अत्यंत जटिल है | बुनकर यदि अपने करधे पर दृष्टि स्थिर रखे, तभी वह अच्छी गुणवता वाले कपडे बुन सकता है | परन्तु इसमें से कोई व्याख्यान सुनकर पुस्तकों की सहायता से एकाग्रता का अभ्यास नहीं करता | उनके कार्यो की आवश्यक के अनुसार उत्पन्न परिस्थितियों ने ही उनमे एकाग्रता का विकास कर दिया है | वे कौन-सी परिस्थितियाँ है? ये की उनके कार्य में जरा-सी भी चूक उनके लिए एक भयानक दुर्धटना का कारण बन सकती है | उपरोक्त सभी कार्यो में जोखिम बना ही रहता है इसी कारण उन्हें अपने मन को संयमित कर बड़ी सावधानी पूर्वक कार्य करना पड़ता है | इस प्रकार वे अपने व्यावसायिक कार्य में एक प्रकार की एकाग्रता प्राप्त कर लेते है | इतना ही नहीं, ऐसे असंख्य उदाहरण है, जिसमे पीढ़ी-दर-पीढ़ी ऐसी एकाग्रता देखने को मिलती है | उदाहरणार्थ , आई.टी.आई में शिल्पविद्या सीख रहे प्रशिक्षणार्थियो में यदि कोई लोहार का लड़का है, तो वह अन्य लडको की अपेक्षा शीघ्र इस कला में निपुण हो जाता है | अन्य दूसरे पेशो में भी ऐसा होता है, यह बहुत ही कम देखा गया है कि कोई व्यक्ति किसी नये कार्य में शीघ्र दक्षता प्राप्त कर ले | इन निरिक्षणो के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि एकाग्रता निरन्तर प्रयास के द्वारा ही प्राप्त की जाती है अर्जुन के प्रश्न पर भगवान श्रीकृष्ण का यही उत्तर था कि 'अभ्यास से ही पूर्णता की उपलब्धि होती है' | अर्जुन का वह प्रश्न क्या था ? वह था - "हे कृष्ण ! यह मन अत्यंत चंचल और बलवान है | इसे नियंत्रण में रखना वायु को वश में करने के समान है | अब ऐसे मन को भला नियंत्रण में कैसे लाया जा सकता है ?" भगवान श्रीकृष्ण का उत्तर था, "अर्जुन, जो तुम कह रहे हो वह सत्य है | इसे नियंत्रण में रखना सरल नहीं है, तथापि यह भी सत्य है कि ऐसा चंचल मन भी नियमित 'अभ्यास तथा वैराग्य ' के द्वारा वश में लाया जा सकता है"| अर्जुन का प्रश्न बिलकुल स्वाभाविक है और भगवान श्रीकृष्ण का उत्तर भी वैसा ही सरल है | मन को नियंत्रण में लेन की समस्या कोई नयी बात नहीं है | यह समस्या भी उतनी ही प्राचीन है ' जीतनी की मनुष्य स्वयं; भले ही आज की अनैतिक तथा असंयमित जीवनचर्या के फलस्वरूप इसमें कुछ वृद्धि हो गयी हो | वस्तुतः अर्जुन एक बड़े ही साहसी तथा नीतिमान पुरुष थे और अर्जुन के समान व्यक्ति का भी मन चंचल तथा बेकाबू हो सकता है, तो फिर आज के सुखान्वेषी और भोगासक्त लोगो के मन की तो बात ही क्या है !जिन लोगो ने अपने मन को नियंत्रित करने का संकल्प कर लिया है, उन्हें सर्वप्रथम मन की प्रकति को स्पस्ट रूप से समझ लेना होगा, जिससे कि वे लोहा लेना चाहते है | मन बन्दर के समान चंचल और मतवाले हाथी के समान शक्तिशाली है | इसे नियंत्रित करना अर्जुन के कथानुसार वायु को पकड़ने के समान है | संयमित करने के लिए वैसी ही निपुणता की आवश्यकता है, जैसे कि बंदरो को पकड़ने एवं हाथियों को प्रशिक्षित करने में लगती है |
जब अर्जुन ने शिकायत की कि मन को नियंत्रण ने लाना अत्यंत कठिन है तब भगवान श्रीकृष्ण ने यह कहकर उसे हसी में नहीं उड़ा दिया, "हे अर्जुन, बड़े-बड़े योद्धाओं को पछाड़ देने वाले तुम्हारे जैसे पराक्रमी के लिए अपने स्वयं के मन को वश में करना कौन सा कठिन कार्य है ? तुम्हे तो यथेच्छा इसका उपयोग करने में समर्थ होना चहिये |" परन्तु इसके स्थान पर समस्या की गंभीरता को समझते हुए वे सहानुभूतिपूर्वक बोले, "अर्जुन ! तुम जो कहते हो, वह सत्य है कि मन अत्यन्त चंचल है एंव इसे वश में करना भी बहुत कठिन है | " भगवान श्रीकृष्ण के ऐसा कहने का कारण यह है कि वे मन के स्वभाव को जानते थे | इस पृथ्वी के प्रत्येक प्राणी तथा वस्तु का अपना एक विशिष्ट स्वभाव है, यथा- हवा का गुण है चलना, आग का जलना और जल का धर्म है बहना; ठीक इसी प्रकार मन का भी स्वभाव है - हर पल चारो तरफ दौड़ना, पागल के समान उछल - कूद मचाना, सपने देखना , चिंता करना, हवाई किले बनाना, अपने कर्तव्य - कर्म को छोड़कर अन्य बातों का विचार एंव चिंता करना आदि आदि | एक तो मन स्वभाव से ही चंचल है और चंचलता से भरा परिवेश भी उसे उत्तेजित करता रहता है, अतः ऐसी परिस्थिति में मनुष्य उसके तालो पर नाचने के सिवाय कर भी क्या सकता है ? इसलिए जो लोग अपने मन को नियंत्रित करना चाहते है, उन्हें अपने आप को उच्छृंखल वातावरण से अलग रखना चाहिए | इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि हमें शहर ही छोड़ देना चाहिए, बल्कि केवल इतना ही करना होगा कि हम अपने मन को उपरोक्त प्रकार के परिवेशों में घुलमिल न जाने दे | यह कैसे हो सकता है? यहाँ पाँच ज्ञानेन्द्रियों की भूमिका दृष्टि में आती है | आँख, कान, नाक, जिव्हा तथा त्वचा- ये पाँच मन के यंत्र है | ज्योंही आँख की ज्योति किसी आकर्षक वस्तु पर पड़ती है, त्योंही मन उस पर कूद पड़ता हैं | ये इन्द्रियाँ ही मन को विभिन्न दिशाओं में खींचती रहती है | अतः बुद्धि की सहायता से इन्द्रियों को नियंत्रण में रखना आवश्यक है | तात्पर्य यह है कि उसे न देखें जिसे देखना उचित नहीं, उसे न सुनें जिसे सुनना उचित नहीं, उसे न खायें जिसे खाना उचित नहीं, वह न करे जिसे करना उचित नहीं | इसी को संस्कृत में 'दम' कहते है | मन इन्द्रियों की सहायता के बिना भी जहाँ ख़ुशी हो जाना है | ऐसी परिस्थिति में बुद्धि की सहायता से मन को पुनः वापस ले आना चाहिये | मन को संयमित रखने की इस प्रत्यक्ष विधि को 'शम' कहते हैं |
मन तथा इसके निग्रह के विषय में इतनी जानकारी प्राप्त करने के बाद भी कोई पूछ सकता है कि आखिरकार इसे नियंत्रित करने की अवश्यकता क्या है? इसका सही उत्तर जानना हमारे लिए आवश्यक है | इसका उत्तर यह है : यदि किसी व्यक्ति का मन उसके स्वयं के नियंत्रण में है, तो इसके द्वारा महान उपलब्धियाँ संम्भव है; जबकि वह उसके नियंत्रण में नहीं है, तो यहाँ तक कि साधारण से साधारण कार्य भी उसे उसे कठिन तथा असम्भव लगते है | वस्तुत: 'मन' विराट् शक्तियों का आगर है, तथापि कुछ लोग बीच बीच में या फिर जीवन भर ही दुर्बल मानसिकता के शिकार दिख पड़ते हैं | इसका कारण यह है कि उनकी मानसिक ऊर्जा की अविवेकपूर्वक बर्बादी हुई है | सभी इस बात को नहीं जानते कि सूर्य की किरणों में अग्नि उत्पन्न करने की क्षमता निहित है | क्यों नहीं जानते ? इसलिए अब तक उन्होने सूर्य की किरणों से आग उत्पन्न होते तथा वस्तुओ जलते नहीं देखा होगा | किन्तु जब उन्ही किरणों को एक उत्तल लेंस से गुजारकर कागज टुकड़े पर डाला जाता है, तो वे उसे जला डालती हैं | किरणों को यह शक्ति कहाँ से मिली ? यह इनके एक बिन्दु पर केन्द्रित करके 'एकाग्र' बनाने का परिणाम था | इसके पहले ये किरणें विभिन्न दिशाओ में बिखरी हुई थीं | इसी कारण गर्मी उत्पन्न कर पाने के बावजूद वे आग पैदा करने में असमर्थ रहीं, परन्तु एक बिंदु पर केन्द्रित किये जाने पर उसी से आग धधक उठी | यही एक स्मरणीय रहस्य है |
हमारे मन में अदभुत शक्ति निहित है, पर चूकि यह शक्ति सभी प्रकार के आवश्यक तथा अनावश्यक कार्यो में नष्ट होती जा रही है, अतः हम केवल अति सामान्य कार्य करने में ही सक्षम हो पाते है | यदि महान उपलब्धियाँ करनी हों, तो मन की विच्छिन्न शक्तियों को एक सूत्र में होगा यह केवल तभी सम्भव है, जब मन हमारे स्वय के नियंत्रण में हो | परन्तु बिना कुछ सुने पागल के समान दौड़ने वाले इस मन भला कैसे अपना कहा जा सकता है? जो मन इन्द्रियों के आमंत्रण पर विषयों में डूब जाता है, निश्चित रूप हमारा अपना नहीं है | अब हम इस मन को जो कि हमारा अपना नहीं है, किस प्रकार अपने इच्छित कार्यो में लगायें ?
हमारे प्राचीन ऋषियों ने पहली उपलब्धि की थी- निरन्तर प्रयास के द्वारा मन को नियंत्रण में लाकर 'मानसिक सन्तुलन' स्थापित करना | और जब ऐसे सयंमित मन को एकाग्र किया जाता था, तो उनमे योग के महान रहस्यों को उद्घाटित करने की क्षमता आ जाती थी | इससे उन्हें दिव्य-ज्ञान की प्राप्ति हुई |
स्वामी विवेकानन्द बताते है कि एकाग्र मन वस्तुत: एक सर्चलाइट हमें दूर तथा अँधेरे कोनो में पड़ी वस्तुओ को भी देखने में समर्थ बनाता है |
यह सत्य है कि मन को एकाग्र करना है, किन्तु उसका विषयवस्तु तथा लक्ष्य क्या हो ? इसका एक ऐसा सुनिश्चित उतार देना सम्भव नहीं, जो सभी व्यक्तियों के लिए अनुकूल हो, क्योकि 'यदि कहा जाय कि आत्मज्योति पर मन को एकाग्र किया जाय, तो यह उचित नहीं होगा, क्योंकि सभी योगी बनाने के इच्छुक नहीं है | और न ही यह कहा जा सकता है कि मन को ईश्वर पर एकाग्र किया जाय, क्योंकि हर व्यक्ति भक्त नहीं बनना चाहता | फिर यदि कहें कि मन को पाठों पर एकाग्र करना चाहिए, तो कैसा रहे ? लेकिन सभी लोग तो स्कूल जानेवाले विद्यार्थी नहीं हैं | अतः सर्वाधिक उचित तो यही होगा कि प्रत्येक व्यक्ति स्वयं ही मन:संयोग के लिए अपना खास विषय चुन ले |
परन्तु चूँकि यह लेख विशेष रूप से छात्रों से सम्बन्ध रखता है, अतः यहाँ पर इसी बात पर चर्चा करेंगे कि विद्यार्थी किस प्रकार अध्ययन में अपने मन को एकाग्र करें |
- जिस प्रकार प्रत्येक योगी को ध्यान करने के लिए एक स्थिर तथा उचित रूप से सुखद आसन की आवश्यकता होती है, उसी तरह प्रत्येक विद्यार्थी के पास अपनी किताब-कापियों को फैलाकर सुविधापूर्वक बैठने केक उपयुक्त मेज कुर्सी आवश्यक हो | छात्रो तथा योगियों में कई दृष्टियों से समानता दीख पड़ती है | यहाँ पर यह प्रश्न कदापि नहीं उठना चाहिए कि निर्धन विद्यार्थी कहाँ से इतनी मात्रा में मेज-कुर्सी की व्यवस्था कर सकेंगे ? या फिर कोई यह पूछ बैठे कि 'महाशय, क्या श्री.एम.विस्वेस्वर्य उनके विद्यार्थी जीवन में मेज-कुर्सी थी ? क्या वे सड़क की रोशनी में पढ़कर विश्वविख्यात व्यक्ति नहीं बन गये ?' ऐसे तर्क भी यहाँ लाने किओ आवश्यकता नहीं | निश्चित रूप से सड़क की रोशनी में पढ़नेवाले सभी बालक विस्वेस्वर्य नहीं बन जाते | अस्तु जिन लोगो में मेज-कुर्सी लेने की सामर्थ्य नहीं, वे कम-से-कम एक डेस्क तो रख ही सकते है |
- एक बार लिखने या पढ़ने बैठ जाने के बाद अनावश्यक रूप से पाना शरीर नहीं हिलाना चाहिए | बहुत से छात्र पढ़ते समय बड़ी बेढंगी मुद्रा में बैठते है | कुछ अन्य हैं जो पढ़ते समय अन्यमनस्क होकर किसी-न-किसी वस्तु को घूरते हुए अपना पेन या पेन्सिल चबाते रहते हैं, मानो वे किसी गहरे चिन्तन में डूबे हुए हो | ऐसे ही और भी कई प्रकार की दिखावटी आदते होती हैं | ये सभी एकाग्रता में बाधक हैं | जैसे एक हिलते हुए बर्तन में रखा हुआ पानी स्थिर नहीं रह सकता, उसी प्रकार शरीर की मुद्राएँ बदलते रहने से मन भी चंचल होता रहता है | अतएव अध्ययन के समय एक उचित तथा स्थिर मुद्रा में बैठना बड़ा महत्व रखता है|
- कहना न होगा कि अध्ययन के लिए एक बार में एक ही विषय लिया जाय | जब अध्ययन के लिए एक निर्धारित विषय लिया जाय | जब अध्ययन के लिए एक निर्धारित विषय चुन लिया गया, उसके बाद मन को कम-से-कम एक घण्टा उसी में तल्लीन रखा जाय | किसी पुस्तक को मात्र पढ़ डालने से ही अध्ययन नहीं हो जाता | एक पुस्तक को केवल पढ़ डालने और उसका अध्ययन करने के बीच जो अन्तर हैं, व्यक्ति को उसे अवश्य ही समझ लेना चाहिए | एकाग्रता दोनों में ही लगती है | जल्दबाजी में किसी पुस्तक को पढ़कर पाठक उसके सार-संक्षेप से परिचित हो सकता है | परन्तु विस्तारित अध्ययन मन को इस योग्य बना देता है कि वह विषयवस्तु की गहराई में उतरकर उसके यथार्थ तात्पर्यों को जान ले, जो बहुधा सरसरी निगाह से छिपे रहते हैं | इसके फलस्वरूप विषय-वस्तु पर अच्छी पकड़ हो जायेगी और भावी अध्ययन में भी सहायता मिलेगी |
- जैसा कि पहले बताया जा चूका है - एक बार जब हम अध्ययन के लिए किसी विषय को लेकर बैठते है, तो उसे पुरे एक घण्टे तक जारी रखना अत्यन्त आवश्यक है | सामान्यतः मन किसी नये विषय को सहसा ग्रहण करने की लिए तैयार नहीं होता | दिन भर हम जिन विभिन्न कार्यो में व्यस्त थे; मित्रो तथा अन्य लोगो के साथ जो बातें कर रहे थे; वे अब पढाई आरम्भ करने के बाद भी सक्रिय होंगे | अतएव अध्ययन के लिए तैयार होने में मन को आठ से दस मिनट तक लग जाते है | जब मन इस प्रकार की विषयवस्तु की गहराई में डूब रहा हो, तब यदि अचानक अध्ययन रोका दिया जाय, तो एकाग्रता भंग हो जाएगी एवं पढाई नुकसान होगा | अतः कुछ मिनटों बाद जब मन एकाग्र होता है, तो उस अवसर का उपयोग विषय का गहनतर अवगाहन करते हुए गंभीर अध्ययन में लगाये रखना चाहिए |
- इस अध्ययन के दौरान सम्भव है कि परिवार का कोई सदस्य विनयपूर्वक किसी अन्य कार्य के लिए बुलाने आ जाए, इसलिए घर के लोगो को पहले से ही बता देना होगा, "कृपया, मुझे एक घण्टे तक ना बुलाएँ"- क्योंकि यदि मन में किसी के पुकारने की सम्भावना भी बनी रही, तो वह पूरी तौर से अध्ययन में एकाग्र नहीं हो सकेगा |
- अब अति है - ध्वनि- प्रदूषण की समस्या | गाँवो के शान्त-स्वच्छ वातावरण के बीच रहनेवाले विद्यार्थी इस दृष्टि से सौभग्यशाली हैं | परन्तु शहरों में और विशेषकर राजधानीयों में निवास करनेवाले विद्यार्थीयों को इस ध्वनि-प्रदूषण की समस्या का सामना करना पड़ता है | चूँकि ध्वनि-प्रदूषण सभी कस्बों तथा नगरों बुरी तरह से फैला हुआ है, अतएव इसे सहन करने के सिवाय अन्य कोई विकल्प नहीं | चाहे कोई कितना भी इस समस्या को नजरअंदाज करने का प्रयास करे, पर जब ध्वनि-विस्तारक यंत्र चिंघाड़ने लगते है, तो अध्ययन में शीघ्र ही व्यवधान पड़ जाता है | पवित्र गणेश चतुर्थी का समरोह आने पर पुरे महीने भर इस कर्कश ध्वनि से कण पाक जाते हैं | फिर कर्नाटक में कन्नड़ राज्योत्सव आरम्भ होने साथ भी एक माह तक कोलाहल चलता रहता है और रामनवमी समारोह के विषय में तो जितना भी कहा जाय काम है | बेचारे छात्र अपनी दुर्दशा को भलीभाँति समझते हैं | ये ही सब मिलकर नगरीय जीवन के नारकीय जीवन की सृष्टि करते हैं | समाज का शिक्षित वर्ग और शिक्षाशास्त्री भी इस विषय में अपने को असहाय पाते हैं | सम्भवतः शिक्षाशास्त्रियों के पास अधिकार नहीं हैं | और वे जिनके पास अधिकार हैं, उनके पास विवेक-शक्ति का अभाव है | खैर ध्वनि-प्रदूषण से निजात पाने का एक रास्ता है अवश्य, और वह यह है कि छात्र अपने मन के भीतर अध्ययन में उत्कृष्टता प्राप्त करने की तीव्र इच्छा विकसित करें | यदि मन में ऐसी तीव्र व्याकुलता है, तो फिर बाहरी शोरगुल शायद ही सुनाई पड़े | उदाहरण के लिए, जब हमारा मन किसी चिन्ता से आक्रांत हो जाता है, तो हमारे बगल में भी बजने वाले नगाड़े कि ध्वनि हमें सुनाई नहीं देती | परीक्षा के सिर आ पहुँचने पर यह व्याकुलता या उत्कण्ठा चरम सीमा पर दीख पड़ती है | परन्तु परीक्षाओं के दूर रहते ही यदि हम उनमें श्रेष्ठता हासिल करने की एक प्रकार की एकाग्रता का विकास कर लेना सम्भव नहीं हैं |
- एक दूसरा उपाय भी है, जिसके द्वारा अध्ययन में एकाग्रता प्राप्त की जा सकती है और वह है पठनीय विषय पर अच्छी तरह ध्यान देना | इस सतर्कता को अवधान कहते हैं | इसका अर्थ है मन को जागरूक बनाये रखना | बहुत से छात्र ध्यानपूर्वक अध्ययन करने में असमर्थ होते हैं, क्योंकि उनका मन एक प्रकार से दिवा-स्वप्नों में खोया रहता है अथवा निरुद्देश्य ही चारों ओर भ्रमण करता रहता है, इसे पढ़कर यह प्रश्न उठ सकता है, "तो फिर मन को कैसे जागरूक रखा जा सकता है ?" कुछ उपयोगी सुझाव यहाँ प्रस्तुत हैं - (क) कुछ विशेष प्रकार के खाद्यपदार्थ निद्रा में वृद्धि करते हैं | ऐसे पदार्थों का त्याग कर देना चाहिए | (ख) मन तभी सशक्त होगा, जब शरीर के विभिन्न अंग स्वच्छ रखे जायँ | इसके अतिरिक्त पहनने के वस्त्र, बिस्तर आदि दैनदिन उपयोग की सारी वस्तुएँ साफ रहें | (ग) कमरे ;की अन्य सभी वस्तुएँ तथा दैनिक उपयोग की चीजें सुव्यवस्थित रूप से रखी जायँ | यह सुशृंखलता सबल रूप से मन की अवस्था को प्रकट करती है | उनकी व्यक्तिगत चीजों तथा पुस्तकों की दुरवस्था को देखकर हम आसानी से समझ सकते हैं की वे कितने लापरवाह हैं | (घ) विद्यार्थियों के जांनने योग्य एक दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि शरीर के समान ही मन को भी स्वच्छ रखना आवश्यक है | अश्लील व भद्दे विचरों को मन में प्रवेश करने से न केवल रोका जाना चाहिए, बल्कि मन को उनकी हवा तक नहीं लगने देनी चाहिए, क्योंकि ये विचार ही हमारे मन में तबाही मचाने तथा उसे बिगाड़ने में मूलभूत कारण हैं | मन यदि तन्द्राच्छन्न तथा स्वप्नपरायण है तो भी अधिक चिंता की बात नहीं, परन्तु अश्लीलता और भद्दगी यदि एक बार मन में प्रविष्ट गयी, तो फिर एकाग्रता का प्रश्न ही नहीं उठता | चूँकी एक शब्द तथा अदूषित मन आसानी से एकाग्र हो जाता है, अतः बुरे तथा दूषित विचारों को मन के पास नहीं फटकने देना चाहिए | (ड) छात्रो को मन-ही-मन संकल्प करना चाहिए - "मै एक घण्टे के भीतर इतने हिस्से का भलीभाँति अध्ययन करुँगा |" और निर्धारित समय के दौरान उस अंश का अध्ययन पूरा कर लेने के लिए उद्विग्नता का अनुभव करना चाहिए आरम्भ सम्भव है कि निर्धारित समय हिस्से का अध्ययन समाप्त न हो सके, परन्तु ऐसे आकुल प्रयत्नों से मन के जागरूक रहने की सम्भावना बढ़ती हैं | इस प्रकार से मन को जागरूक रखने का यह निरन्तर प्रयास काफी हद तक मन की एकाग्रता को विकसित करने में सहायक होगा |
- एकाग्रता विकसित करने के इच्छुक छात्रो को चाहिए कि वे गपशप को विष के समान हानिकारक समझकर उसका त्याग कर दें | वैसे मित्रो के साथ पाठ्य विषयों पर चर्चा निश्चित रूप से सहायक सिध्द हो सकती है | योगियों ने अविष्कार किया कि हमारी मानसिक ऊर्जा का बहुत बड़ा हिस्सा अनावश्यक बकवादो में नष्ट हो जाता है | बेकार की गपशप से मन का संयम तथा शृंखला नष्ट हो जाती है | एक दुर्लब शरीर तथा दुर्बल मन वाले व्यक्ति के लिए एकाग्रता टेढ़ी खीर है |
- किसी किसी छात्र की यह शिकायत है कि जब वे मन को एकाग्र करने का प्रयास करते हैं, तो उन्हें सिरदर्द होने लगता है | इसका मुख्य कारण यह है कि उनके मस्तिक में यथेष्ट शक्ति नहीं है | मस्तिक को सुदृढ़ बनाने के लिए किसी योग्य व्यक्ति के मार्गदर्शन में कुछ विशेष योगासन का अभ्यास करना चाहिए | इसके साथ-ही-साथ किसी अच्छे चिकित्सक की सलाह लेकर पौष्टिक भोजन, टॉनिक, च्यवनप्राश आदि का भी सेवन किया जा सकता है | प्रतिदिन उचित मात्रा में दूध, मक्खन तथा घी अवश्य लेना चहिए | सच ही कहा है 'सर्व अत्यन्तं गर्हितम'; तथापि ब्रह्मचर्य द्वारा रक्षित ऊर्जा ही सर्वोत्तम टॉनिक है | ब्रह्मचर्य पालन करने के लिए कुछ सहज सुझाव दिये जाते है- (क ) अपने अन्तर में स्थित आत्मा के समक्ष सच्चे ह्रदय से ब्रह्मचर्य की शक्ति को बनाये रखने के लिए प्रार्थना करनी चाहिए | (ख) शरीर तथा मन को शुद्ध रखना चहिए | (ग) मनुष्य जैसे बाघों तथा भेडियो से दूर भागता है, वैसे ही सावधान रहना होगा कि कहीं हम किसी असंयमित तथा अनुचित कार्यो में लिप्त छात्रो की संगत में न पड़ जाएँ | वैसे हमें उनकी आलोचना करने के भी चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए, क्योंकि उससे कुछ अन्य समस्याएँ पैदा होंगी |
प्रत्येक विधार्थी में अनन्त ज्ञान का अर्जन करने की एक अद्धभुत क्षमता निहित है | इस बात में तो कोई सन्देह नहीं | बात केवल इतनी सी है कि छात्र को उसकी अपनी अन्तर्निहित शक्ति में सन्देह नहीं होना चाहिए |संशय ही श्रद्धा का प्रबल शत्रु है | ज्योही किसी संदेह का उदय होता है, त्योंही अन्तर्निहित शक्ति जवाब देने लगती है | इसके बाद उसके लिए केवल अपने भाग्य पर रोना ही शेष रह जाता है | इस अन्तर्निहित ज्ञान को प्रकट कैसे किया जाए ? इसका उपाय है - नियमित तथा सुसम्बद्ध रूप से अध्ययन व चिन्तन करना | छात्र को इस प्रकार के दृढ़ संकल्प के साथ अध्ययन लिए बैठना चाहिए, "मैं सावधानीपूर्वक अध्ययन करके निश्चित रूप अपने ज्ञान में वृद्धि करूँगा |" यह एक ऐसा प्रभावी उपाय है, जिसके द्वारा मन स्वाभाविक रूप से एकाग्र हो जाता है | चाहे तो इसे आजमा कर देखा जा सकता है | वस्तुतः श्रद्धा की महत्ता असीम है | अतः हमें मन-ही-मन कहना होगा- "हे श्रध्दा !तुम यदि साथ रहो, तो मेरी विजय सुनिश्चित है; और यदि चली जाओ, तो मेरी असफलता तथा पतन अवश्यम्भावी है |"
(11) एकाग्रता की एक और तथा सबसे महत्वपूर्ण चाभी है - प्रेम | यह एक अपरिहार्य नियम है कि मन अपनी पसन्द की वस्तुओं पर ही चिन्तन करता रहता है | जहाँ किसी भी वस्तु के प्रति प्रेम का अतिरेक होता है, मन उसमे तीव्रता के साथ एकाग्र हो जाता है | इस विषय में अधिक विस्तार के साथ कुछ कहने की आवश्यकता नहीं, क्योकि प्रत्येक व्यक्ति अपने प्रिय वस्तु के साथ मन के लगाव का अनुभव करता है | अतः विद्यार्थी लिए यह आवश्यक है कि वह अपने अध्ययन के प्रति अनुराग पैदा करे |
आरम्भ में अध्ययन के प्रति इस अनुराग को थोड़े प्रयास के द्वारा विकसित करना पड़ेगा | किन्तु बाद में जैसे जैसे विषय सहजग्राहा होता जाता है, वैसे वैसे सहज अध्ययन के प्रति अनुराग में वृद्धि होती जाती है | और तब मन अपने आप ही एकाग्र की उपलब्धि कर लेता है |
श्रद्धा एवं प्रेम के द्वारा विकसित एकाग्रता ही सहज तथा स्वभाविक होती है | यह किसी मानसिक संधर्ष या तनाव से रहित होती है |
अब हम विद्यार्थीयों के लिए यहाँ एक विशेष सुझाव दे रहे है | भले ही कोई ऊपर बताये गये ग्यारहों सुझावों अपना ले, परन्तु एकाग्रता की अन्तिम परिणति तभी मानी जायगी, जब पठनीय विषय पूरी तौर समझ लिया गया हो | इसलिए व्यक्ति को दुखी होकर इस प्रकार खेद नहीं करना चाहिए, "मै अभी तक एकाग्रता क्यों नहीं प्राप्त कर सका हूँ?" बल्कि व्यक्ति को धैर्य तथा पुरे उधम के साथ अध्ययन करने तथा विषय को स्पष्ट रूप से समझने के प्रयास में लग जाना चाहिए | उदाहरण के लिए कोई पाठ पढ़ते समय उसमे आये कठिन शब्दों का शब्दकोश की सहायता से स्पष्ट रूप से अर्थ जाने बिना अग्रसर नहीं होना चाहिए | अन्यथा इसका परिणाम केवल समय की बर्बादी मात्र ही होगा | ऐसी पढाई से बिल्कुल भी लाभ नहीं, क्योकि कोई भी विषय उसमे आये कठिन शब्दों के अर्थ जाने बिना भला कैसे समझा जा सकता है ?
आज के छात्रो की शैक्षणिक योग्यता, और विशेषकर उनकी लेखन क्षमता कितनी दयनीय हो गयी है, यह जानने के लिए उनसे किसी विषय पर एक निबन्ध लिखने को कहना ही पर्याप्त है | उसके प्रत्येक पृष्ठ पर हमें यथेष्ट मात्रा में गलत शब्दों के प्रयोग, वर्तनी की भूलें तथा त्रुटिपूर्ण वाक्य मिल जायँगे | छात्र चाहे कितना भी प्रतिभावान क्यों न हो, परन्तु बिना परिश्रम व उधम के उसे कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता |
इसलिए भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है, "केवल अभ्यास तथा वैराग्य के द्वारा ही एकाग्रता की प्राप्ति सम्भव है |" अभ्यास का अर्थ है- निरन्तर उधम और अथक प्रयास | पाँच वर्ष के एक बालक के लिए कुछ साधारण शब्द भी लिख पाना बड़ा कठिन हो सकता है, किन्तु वही बालक यथासमय जब दसवीं के स्तर पर आता है, तो वह लम्बे वाक्य भी अनायास ही और धाराप्रवाह लिख सकेगा | यह कैसे सम्भव हुआ? और कुछ नहीं, बस केवल अभ्यास के द्वारा ही | इस संसार में अतीत काल में भी महान उपलब्धियाँ होती रही है और आज भी हो रही है | हमें एक बार अपने खुले मन से उनकी कल्पना करनी होगी | प्रत्येक उपलब्धि के लिए कितने लोग निरन्तर प्रयास में लगे रहे होंगे !
अध्यवसायी लोगो के लिए कुछ भी असम्भव नहीं हैं |
अब हम 'वैराग्य' पर आते हैं - इस शब्द से क्या तात्पर्य हैं? क्या इसका अर्थ संन्यास - त्याग आदि हैं? नहीं, अपने निर्वाचित लक्ष्य की पूर्ति होने तक बाकी सभी आकर्षणों तथा प्रलोभनों से दूर रहना ही 'वैराग्य' का निहितार्थ है | तात्पर्य यह कि केवल अपने हाथ के कार्य में मन को लगाये रखना और बाकी सब कुछ के प्रति उदासीन रहना- यही 'वैराग्य' हैं | संन्यासियों का लक्ष्य आत्मानुभूति होने के कारण उन्हें समस्त सांसारिक वस्तुओं का परित्यग करना पड़ता है और इसलिए 'वैराग्य' शब्द त्याग के शब्द में प्रचलित हो गया है | अतः आज जब कभी इस शब्द का प्रयोग होता है, तो हमारे मनश्चक्षुओं के समक्ष किसी सन्यासी या तपोवन-प्रस्थान का चित्र उभर आता है, किन्तु यह ठीक नहीं है | कोई भी व्यक्ति जब किसी विशेष लक्ष्य की प्राप्ति के में लगता है, तो वह काफी हद तक अन्य बातों से विरत हो जाता है | एक छात्र से यह अपेक्षा की जाती है कि वह ज्ञानप्राप्ति के प्रयास में समर्पित होगा | परन्तु यदि उसका मन अन्य प्रलोभनों के द्वारा विच्छिन्न हो रहा है, तो उसकी शिक्षा कैसे अग्रसर होगी ? विशेषकर जो लोग एकाग्रता प्राप्त करने का संकल्प ले चुके हैं, उन्हें तो कभी मन को भटकनेवाली वस्तुओं पर दृष्टि तक नहीं डालनी चाहिए |
अब जानने के बाद की एकाग्रता में ही सफलता व आनंद निहित है, छात्र को हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रहने के स्थान पर तत्काल पूरी शक्ति के साथ इसके अभ्यास में लग जाना चाहिए |
सच्ची एकाग्रता का लक्षण यह है कि इसकी सहायता से व्यक्ति अपने अध्ययन में इतना डूब जाता है कि वह न केवल परिवेश, वरन अपने शरीर तक को भूल जाता है |
यदि कोई व्यक्ति अपने शारीरिक रोगों को नष्ट कर अच्छे स्वास्थ्य का आनन्द उठाना चाहता हो, यदि कोई अपनी बौद्धिक क्षमता का विकास करने का इच्छुक है और यदि कोई सचमुच ही एकाग्रता प्राप्त करने पर तुला हुआ है, तो उसे योगासनों का आश्रय लेना चाहिए | योगासन का नियमित अभ्यास शरीर के स्नायु-तन्त्र को सबल तथा सक्रिय बनाता है और इस प्रकार एकाग्रता विकास में सहायता होती है | योगासन मानवजाति के लिए एक वरदान है |
युवकों का मन एक जलप्रपात के सामान है | इसमें एक विशाल जलराशि पर्वत की ऊँचाईयों से तेज धार के रूप में नीचे उतरती है और चारों ओर बिखर कर बहते हुए, अन्त बिना किसी उद्देश्य की पूर्ति किये ही समुन्द्र में जाकर समाप्त हो जाती है | दूसरी ओर, इस जल के चारों ओर यदि एक बाँध बना दिया जाय और इसके बहाव को नहरों के द्वारा व्यवस्थित कर दिया जाय, तो इससे सिंचाई के काम में लगाकर अच्छी फसल उपजायी जा सकती है |
इसी प्रकार युवकों की बिना किसी उद्देश्य के ही बरबाद हो जाने वाली असंयमित तथा उच्छृंखल मानसिक शक्तियों के चारो ओर नियमों तथा अनुशासन का बाँध बनना चाहिए, आचार-संहिता की नहरें खुदनी और शिक्षा, कला, साहित्य एवं प्रौद्योगिकी के खेतो का मानसिक शक्तियों के जल से सिंचन होना चाहिए | तभी हम संस्कृत की एक अद्भुत फसल पैदा कर सकेंगे |
एक विद्यार्थी में एकाग्रता का अभाव क्यों होता है |
आज के छात्रो की शैक्षणिक योग्यता, और विशेषकर उनकी लेखन क्षमता कितनी दयनीय हो गयी है, यह जानने के लिए उनसे किसी विषय पर एक निबन्ध लिखने को कहना ही पर्याप्त है | उसके प्रत्येक पृष्ठ पर हमें यथेष्ट मात्रा में गलत शब्दों के प्रयोग, वर्तनी की भूलें तथा त्रुटिपूर्ण वाक्य मिल जायँगे | छात्र चाहे कितना भी प्रतिभावान क्यों न हो, परन्तु बिना परिश्रम व उधम के उसे कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता |
इसलिए भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है, "केवल अभ्यास तथा वैराग्य के द्वारा ही एकाग्रता की प्राप्ति सम्भव है |" अभ्यास का अर्थ है- निरन्तर उधम और अथक प्रयास | पाँच वर्ष के एक बालक के लिए कुछ साधारण शब्द भी लिख पाना बड़ा कठिन हो सकता है, किन्तु वही बालक यथासमय जब दसवीं के स्तर पर आता है, तो वह लम्बे वाक्य भी अनायास ही और धाराप्रवाह लिख सकेगा | यह कैसे सम्भव हुआ? और कुछ नहीं, बस केवल अभ्यास के द्वारा ही | इस संसार में अतीत काल में भी महान उपलब्धियाँ होती रही है और आज भी हो रही है | हमें एक बार अपने खुले मन से उनकी कल्पना करनी होगी | प्रत्येक उपलब्धि के लिए कितने लोग निरन्तर प्रयास में लगे रहे होंगे !
अध्यवसायी लोगो के लिए कुछ भी असम्भव नहीं हैं |
अब हम 'वैराग्य' पर आते हैं - इस शब्द से क्या तात्पर्य हैं? क्या इसका अर्थ संन्यास - त्याग आदि हैं? नहीं, अपने निर्वाचित लक्ष्य की पूर्ति होने तक बाकी सभी आकर्षणों तथा प्रलोभनों से दूर रहना ही 'वैराग्य' का निहितार्थ है | तात्पर्य यह कि केवल अपने हाथ के कार्य में मन को लगाये रखना और बाकी सब कुछ के प्रति उदासीन रहना- यही 'वैराग्य' हैं | संन्यासियों का लक्ष्य आत्मानुभूति होने के कारण उन्हें समस्त सांसारिक वस्तुओं का परित्यग करना पड़ता है और इसलिए 'वैराग्य' शब्द त्याग के शब्द में प्रचलित हो गया है | अतः आज जब कभी इस शब्द का प्रयोग होता है, तो हमारे मनश्चक्षुओं के समक्ष किसी सन्यासी या तपोवन-प्रस्थान का चित्र उभर आता है, किन्तु यह ठीक नहीं है | कोई भी व्यक्ति जब किसी विशेष लक्ष्य की प्राप्ति के में लगता है, तो वह काफी हद तक अन्य बातों से विरत हो जाता है | एक छात्र से यह अपेक्षा की जाती है कि वह ज्ञानप्राप्ति के प्रयास में समर्पित होगा | परन्तु यदि उसका मन अन्य प्रलोभनों के द्वारा विच्छिन्न हो रहा है, तो उसकी शिक्षा कैसे अग्रसर होगी ? विशेषकर जो लोग एकाग्रता प्राप्त करने का संकल्प ले चुके हैं, उन्हें तो कभी मन को भटकनेवाली वस्तुओं पर दृष्टि तक नहीं डालनी चाहिए |
अब जानने के बाद की एकाग्रता में ही सफलता व आनंद निहित है, छात्र को हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रहने के स्थान पर तत्काल पूरी शक्ति के साथ इसके अभ्यास में लग जाना चाहिए |
सच्ची एकाग्रता का लक्षण यह है कि इसकी सहायता से व्यक्ति अपने अध्ययन में इतना डूब जाता है कि वह न केवल परिवेश, वरन अपने शरीर तक को भूल जाता है |
यदि कोई व्यक्ति अपने शारीरिक रोगों को नष्ट कर अच्छे स्वास्थ्य का आनन्द उठाना चाहता हो, यदि कोई अपनी बौद्धिक क्षमता का विकास करने का इच्छुक है और यदि कोई सचमुच ही एकाग्रता प्राप्त करने पर तुला हुआ है, तो उसे योगासनों का आश्रय लेना चाहिए | योगासन का नियमित अभ्यास शरीर के स्नायु-तन्त्र को सबल तथा सक्रिय बनाता है और इस प्रकार एकाग्रता विकास में सहायता होती है | योगासन मानवजाति के लिए एक वरदान है |
युवकों का मन एक जलप्रपात के सामान है | इसमें एक विशाल जलराशि पर्वत की ऊँचाईयों से तेज धार के रूप में नीचे उतरती है और चारों ओर बिखर कर बहते हुए, अन्त बिना किसी उद्देश्य की पूर्ति किये ही समुन्द्र में जाकर समाप्त हो जाती है | दूसरी ओर, इस जल के चारों ओर यदि एक बाँध बना दिया जाय और इसके बहाव को नहरों के द्वारा व्यवस्थित कर दिया जाय, तो इससे सिंचाई के काम में लगाकर अच्छी फसल उपजायी जा सकती है |
इसी प्रकार युवकों की बिना किसी उद्देश्य के ही बरबाद हो जाने वाली असंयमित तथा उच्छृंखल मानसिक शक्तियों के चारो ओर नियमों तथा अनुशासन का बाँध बनना चाहिए, आचार-संहिता की नहरें खुदनी और शिक्षा, कला, साहित्य एवं प्रौद्योगिकी के खेतो का मानसिक शक्तियों के जल से सिंचन होना चाहिए | तभी हम संस्कृत की एक अद्भुत फसल पैदा कर सकेंगे |
एक विद्यार्थी में एकाग्रता का अभाव क्यों होता है |
- संभवतः वह अपने पाठ को ठीक-ठीक समझ पाने में असमर्थ होता है |
- अथवा उसके मस्तिष्क को सबल बनाने के लिए पौष्टिक भोजन की आवश्यकता होती है |
- अथवा उसकी घरेलू परिस्थितियाँ उसके मन को उद्विग्न किये रहती हैं |
- अथवा वह टेलीविजन एवं सिनेमा के व्यसन में ग्रस्त है |
- अथवा उसका मन इन्द्रियों-भोगो के पीछे भागता रहता है |
- अथवा सम्भव है वह किसी स्थायी रोगो से पीड़ित रहा हो |
- अथवा उसे शांतिपूर्वक आराम से बैठकर पढ़ने के लिए न्यूनतम सुविधाएँ भी उपलब्ध नहीं हैं |
- अथवा उसका मन समुचित रूप से विकसित नहीं हो सका है |
- अथवा वह एक ऐसे छात्रावास में रहता है, जिसकी व्यवस्था नहीं है |
- अथवा वह बुरी संगति में पड़ गया है |
- अथवा वह अपने विषयों को पसन्द नहीं करता और उसकी अभिरुचि किसी अन्य विषय में है, तब उनका समाधान ढूँढ निकलना कोई बड़ी समस्या नहीं रह जाती |
Amazing
ReplyDeleteApp is secert ko jarur padhe aur share bhi kare kyo ki aaj ki life me kisi ka bhi mind control me nahi hai ye secret sach me apki bahut madad karenge apko apke mind ko control aur focus karne me
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